RPRNEWSTV.COM- – महायोगी गोरखनाथ’विनु गुरु पन्य न पाइम भूलै सो जो मेट । जोगी सिद्ध होइ तब, जब गोरख सो भेंट ॥’- पद्मावतगोरखनाथ महायोगी थे, उन्होंने आत्मा में शिवैक्य सिद्ध किया। जिस प्रकार दर्शन के क्षेत्र में व्यास के बाद आचार्य शकर ने वेदान्त का रहस्य समझाया उसी प्रकार योग के क्षेत्र में पतजलि के बाद गोरखनाथ ने हठयोग और सत्य के शिवरूप का वोघ सिद्ध किया। निस्सन्देह गोरखनाथ बहुत वडे योगानुभवी और सिद्ध महात्मा थे, शकराचार्य के वाद भारत भूमि पर उतरने वाले महात्माओ में गोरखनाथ बडे सिद्ध पुरुष और आत्मज्ञानी स्वीकार किये जा सकते हैं। गोरखनाथ शिवयोगी थे।
नैपाल से सिंहल और कामरूप से पजाव तक के विशाल भूमिखण्ड को उन्होंने अपनी अपूर्व योग-साधना से प्रभावित किया। उन्होने शिव प्रवर्तित योगमार्ग का अनुसरण किया । चौरासी सिद्धो में उनकी गणना है। वे नाथपन्थ के प्रवर्तक थे, उन पर बौद्ध धर्म के योगमार्ग- सिद्धान्तो का भी विशेष प्रभाव था, उन्होने अधिकाश बौद्ध योग- सिद्धान्तों को शैव रूप प्रदान किया, यह उनकी साधना-पद्धति की मौलिकता है। गोरखनाथ ने अपने योगसिद्धान्तों से भारतीय सस्कृति और साहित्य के विकास में अमित सहयोग दिया। गोरखनाथ के आविर्भाव के समय भारतीय राजनीति, धर्म और समाज तथा सस्कृति में एक विचित्र उथल-पुथल का आभास-सा दीख पडा। उनके समय का निश्चय करना कठिन काम है, ऐसा विश्वास किया जाता है कि गोरखनाथ आदि पुरुप शिव के अभिव्यक्त रूप थे और विक्रम की पहली शती में उपस्थित थे। ऐतिहासिक छान-वीन करने पर उनका समय नववी से ग्यारहवी शती ठहरता है। उस समय बौद्धो में अनेक सम्प्रदाय उठ खडे हुए तथा यवनों का प्रवेश आरभ हो गया था,८८भारत के सत महात्माहिन्दू धर्म की स्थिति में परिवर्तन उपस्थित था। ऐसे समय में गोरखनाथ ने देश का नेतृत्व कर आध्यात्मिक चेतना और सास्कृतिक एकता, सामाजिक अविच्छिन्नता और घामिकता की रक्षा की। ऐसा सम्भव है कि वे विक्रमीय ग्यारहवी शताब्दी में उपस्थित थे। सन्त ज्ञानेश्वर के गुरु-परम्परा-वर्णन में गोरखनाथ का नाम आता है, ज्ञानेश्वर के पहले निवृत्तिनाथ, निवृत्तिनाथ के पहले गैनीनाथ और गैनीनाथ के पहले गोरखनाथ थे। इस क्रम से ज्ञानेश्वर और गोरखनाथ के बीच में ढाई सौ साल का अन्तर पडता है, सन्त ज्ञानेश्वर का समय विक्रमीय सम्वत् तेरह सौ वावन है इसलिये यह मत समीचीन-सा ही है कि गोरखनाथ ग्यारहवी शताब्दी में रहे होंगे।
उनके जन्म-स्थान के सम्बन्ध मे भी अनेक मत है। ऐसा कहा जाता है कि गोदावरी-गगा के प्रदेश में चन्द्रगिरि नामक स्थान में उनका जन्म हुआ था, योगि- सम्प्रदायाविष्कृति ग्रन्थ में ऐसा उल्लेख भी है। इस सम्बन्ध में विशेष खोज करने पर अयोध्या के निकट भगवती सरयू के पवित्र तट से थोडी दूर पर जयश्री या जायस नामक स्थान में उनका जन्म लेना अधिकाधिक सगत दीख पडता है। यह साहित्य-सिद्ध तथ्य है कि जायस नगर धर्मस्थान था, महाकवि जायसी ने अपने पद्मावत में ऐसा स्वीकार किया है।गोरखनाथ का जन्म परम योगी श्री मत्स्येन्द्रनाथ की कृपा से हुआ। वे ही उनके योग-गुरु हुए और उन्ही की कृपा से गोरखनाथ ने अमरपद प्राप्त किया। जनश्रुति है कि अवधक्षेत्र में अलख जगाते तथा भिक्षाटन करते हुए मत्स्येन्द्र ने जायस नगर में प्रवेश किया। एक निस्सन्तान ब्राह्मणी को उन्होने झोली की भभूति दी और कहा कि तुम्हें पुत्र होगा। लोकलज्जा के भय से ब्राह्मणी ने मभूति सूखे गोवर के ढेर में (भिटउर) छोड दी। वारह साल के बाद मत्स्येन्द्रनाथ फिर जायस आये, ब्राह्मणी ने उनसे सही-सही बात बता दी, वे ढेर के निकट गये, उनकी अभिमन्त्रित भभूति ने बारह साल के तेजपूर्ण वालक का आकार धारण कर लिया था। वे वालक को अपने साथ ले गये, गोरखनाथ नाम रखा, शिष्यरूप में स्वीकार किया। गोरखनाथ के प्राकट्य अथवा जन्म की यह दिव्यता है, योगसिद्ध रहस्य है।कठिन-से-कठिन तप का पवित्र आचरण अपनाया । ‘मत्स्येन्द्र ने कहाकि अपने आपको देखना चाहिये और अनन्त ऐश्वर्य-माधुर्य-सौन्दर्य सेसम्पन्न चिन्मय शिवतत्व का विचार करना चाहिये। ज्ञान-प्राप्ति से हीचेतन का रहस्य जाना जाता है।
परम ज्योति मे ही जीव सदानिवास करता है। शिव और शक्ति की कृपा प्राप्ति ही योगी कीपूर्ण सिद्धि है। गोरखनाथ ने मत्स्येन्द्रनाथ के उपदेशो और योगसिद्धान्तोके अनुरूप ही अपना जीवन परिष्कृत किया। गोरखनाथ ने माया परविजय पायी, घर-बार छोड दिया, अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत का पालनकिया। आशा, तृष्णा और इच्छा का परित्याग कर दिया। देवलोककी अप्सराओ, मृत्युलोक की नवरमणियो और पाताल की नागकन्याओंका उन्होने विस्मरण कर दिया। वे पहाडी गुफाओ और सघन वनोतथा हिमालय की गीतल कन्दराओ में तप करने लगे। उन्होंने उसजीवात्मा की गहरी खोज की जो जगत में शरीर के साथ आता हैपर अकेले जाता है। गोरख ने प्राण-पुरुष का अन्वेषण कर जगत मेंजन्म-मरण के वन्धन से छूटने का रास्ता समझ लिया। उनकी वाणीहै कि ज्ञान ही सबसे बडा गुरु है, चित्त ही सबसे बडा चेला है,इसलिये ज्ञान और चित्त का योग सिद्ध कर जीव को जगत में अकेलारहना चाहिये, यही श्रेय अथवा आत्मकल्याण का पथ है। उन्हे एकान्तजीवन परम प्रिय था। उन्होने घट-घट में अपने आप को ही व्याप्तपाया, मत्त्येन्द्रनाथ के प्रसाद से उन्हे कैवल्यपद की प्राप्ति हुई। वेनिन्दा-स्तुति से ऊपर उठ गये। उनकी समस्त वृत्तियाँ मन्तर्मुखी होगयी । उन्होने आत्मसाक्षात्कार की भाषा में कहा कि मैने पिंड मेंब्रह्माण्ड को ढूढ कर सारी सिद्धियाँ प्राप्त कर ली है। देव, देवालय,तीर्य, आदि इसी शरीर में है। मैंने शरीर के भीतर अविनाशी परमात्मा-अलखनिरञ्जन की अनुभूति की है।
कायागढ को जीतना किसी वीरका ही काम है। उनकी उक्ति है कि में अपने गुरु मत्स्येन्द्रनाथ कीकृपा से इडा-पिंगला-गगा, यमुना के मध्य-सुपुम्ना में समाधिस्थ होकरब्रह्मज्ञान में रमणशील रहता हूँ। गोरखनाथ ने ईश्वर-प्राप्ति कासहारा लेकर योग-मार्ग का प्रचार किया, पतजलि के सिद्धान्तों काअनुसरण किया । शिव के साथ जीवन-सधि का योग ही गोरखद्वारा